बच्चों का टिफिन नहीं अपना दिलो दिमाग खोलने की जरूरत है. सभी को पता है. फिर भी स्कूलों में कैसे गड़बड़ हो जा रही है. बच् …अधिक पढ़ें
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नॉनवेज खाने को लेकर पुराने समय में लोगों में लोगों में भेद हुआ करता था. लेकिन जेन एक्स में इसका कोई टैबू नहीं दिखता. जिसे तबीयत होती है खाता है. नहीं मन करता नहीं खाता. लेकिन अगर स्कूलों में वेज नॉनवेज खाने को लेकर अगर रोक लगाई जाय या फिर छात्र का नाम स्कूल से काट दिया जाय तो कहा जा सकता है, हद हो गई.
हद इसलिए हो गई कि खाने वाली चीजे व्यक्तिगत रुचि का मसला है. एक ही घर में बहुत से लोग अलग अलग जायके का खाना पसंद करते हैं. कई परिवार ऐसे मिल जाएंगे जिनमें कुछ लोग नॉनवेज खाने के लिए हाथ भर की जीभ निकाल लेंगे. जबकि उनके ही घर के बहुत से सदस्य नॉनवेज खाना तक पसंद नहीं करते. ये भारत की विविधता है. स्कूल देश की संस्कृति को संस्कार के तौर पर बच्चों में भरने के लिए होते हैं. उनसे ये अपेक्षा नहीं रहती कि बचपन से ही भेदभाव और दुराव की तालीम दें.
अमरोहा में खाने के टिफिन में नॉनवेज लेकर आने पर छात्र का नाम स्कूल से काट देना, किसी भी हालत में गले से नहीं उतरता. यहां कि देश के हिंदूवादी संगठन भी उनका साथ नहीं देने वाले. यहां तक कि बहुत से स्कूल मिड डे मील में अंडे वगैरह दिया करते थे. एनसीआर का इलाका नॉनवेज के अलग अलग जायकेदार पकवान बनाने का गढ़ माना जाता रहा है. लिहाजा बच्चों के टिफिन में बिरयानी जैसे व्यंजन का होना बहुत ही सहज है.
लेकिन इसमें हैरान करने वाली ये है कि नोएडा के एक नामचीन स्कूल ने भी इसी अगस्त में नॉनवेज टिफिन में न लाने के लिए कहा था. इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. हालांकि मामले के तूल पकड़ने पर स्कूल की ओर से कहा गया कि एक गार्जियन ने ही शिकायत की थी कि उनका बच्चा किसी साथी के टिफिन से नॉनवेज खा कर बीमार पड़ गया था. इसी वजह से स्कूल ने नॉनवेज न ले आने की सलाह दी थी.
यहां ये भी कहना जरुरी है कि हो सकता है स्कूल में टिफिन में नॉनवेज न लाने वाला बच्चा घर में नॉनवेज खाता हो. ऐसे में आपस में चर्चा से बच्चों में बेवजह के एक मुद्दे पर प्रतिस्पर्धा पैदा होगी. जिसका किसी भी तरह बच्चे के व्यक्तित्व से कोई लेना देना नहीं है. अगर उसके माता पिता ने उसे बचपन से नॉनवेज खिलाया है तो वो खाता होगा. अगर उसके घर में कभी नॉनवेज नहीं पका होगा. नहीं खाया गया होगा तो उसके नॉनवेज खाने की संभावना बहुत कम होगी. यानी ये परिवरिश का मसला है. इसका धर्म और जाति से कोई मतलब नहीं है. कम से कम आज के दौर में कोई इस तरह की बात करता है तो निश्चित जानिए उसकी समझ में दिक्कत है.
इसे कुछ और उदाहरणों से समझा जा सकता है. ब्राह्मण जाति के लोग अक्सर ये दावा करते देखे जाते हैं कि वे नॉनवेज नहीं खाते. लेकिन वही अगर पश्चिम बंगाल के हैं तो उनके लिए मछली खाने में कोई दोष नहीं है. इसी तरह से मिथिलांचल के ब्राह्मण हर मौके पर मांस और मछली खाते हैं. ये मिसाल देने का सबब ये है कि भोजना का बहुत कुछ संबंध स्थान से होता है.
बच्चों को सिखाने दिखाने के लिए और भी बहुत सी बातें होती है. टीचरों का ये काम कतई नहीं है कि वे ये चेक करें कि बच्चे क्या खा रहे हैं. ये उनके माता पिता पर छोड़ कर उन्हें बच्चों के विकास पर ध्यान देना चाहिए. बदलते दौर में जब दुनिया एक छोटे से स्क्रीन पर खुलती जा रही है तो अध्यापकों और स्कूलों को अपना दिलो दिमाग खोल कर ही रखना होगा.